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धर्म एवं दर्शन >> जीवन एक सुन्दर उत्सव

जीवन एक सुन्दर उत्सव

श्री रविशंकर जी

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :124
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4693
आईएसबीएन :81-8929132-7

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रविशंकर जी के प्रवचनों का संकलन....

jeevan ek sundar utsav

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

यह संसार सम्बंधों का है, रिश्ते-नातों का है। सम्बंध हमेशा सीमित होते हैं। गुरु को संसार का हिस्सा मत बनाओ, गुरु के साथ सम्बंध नहीं बनता। गुरु तुम्हारी आत्मा हैं, गुरु का सान्निध्य होता है, मौज़ूदगी होती है जो तुम्हें अपने से जोड़ती है, और सभी सम्बंधों को पूरा करती है गुरु का शरीर तुम्हारे अपने अविनाशी तत्त्व को दर्शाने के लिए ही है, यह बताने के लिए कि ‘‘तुम सुन्दर हो, तुम पूर्ण हो, तुम भगवान हो और सभी सम्बंधों के परे हो।’’

बहुत कुछ सुना है आपने जीवन के बारे में....ज्ञान की कोई कमी नहीं हिन्दुस्तान में। ज़रा झाँक कर देखना आपको इस दुनिया में आये हुए कितना समय हुआ, ज़रा याद करो अपनी-अपनी उमर। और कितने साल यहाँ रहोगे ? और 50 साल, 100 साल ?...

कोई भरोसा नहीं है न ? जीवन बड़ा क्षणिक है और मनुष्य जीवन मिलना बड़ा मुश्किल। कौआ पैदा हो सकते थे, तोता, मैना, छिपकली, मच्छर, मगर मनुष्य जीवन मिला है और थोड़े ही समय के लिए मिला है। इस जन्म में हम प्रसन्न रहें, औरों को भी प्रसन्न रखें। छोटी-छोटी बातों को दिमाग से निकाल दें। इतना करें तो जीवन जीने की कला आ जाती है। फिर किसी भी तकलीफ में, परेशानी में हम आगे बढ़ सकते हैं। मन में एक विश्वास होना चाहिए कि भगवान मेरे साथ है। कई बार विश्वास टूटता है, बार-बार टूटता ! एक हिम्मत हमारे भीतर होनी चाहिए कि यह विश्वास जमा रहे, तो वह आनन्द की कोई सीमा नहीं। फिर हम जीवन में, और इस जीवन के बाद भी, जो लक्ष्य है, उधर भी जीते लेंगे।

बहुत लोग हैं, हजारों, करोड़ों....मगर सब के दिल में प्रेम चित्त पड़ा है, जैसे पानी ज़मीन के बहुत नीचे चला गया हो। ऐसा नहीं है कि प्रेम नहीं है, प्रेम है, मगर कहीं-कहीं पानी बहुत गहरा है, बहुत ज्यादा खोदना पड़ता है। कहीं-कहीं ऊपर है, कहीं-कहीं फव्वारे उठते हैं। इस तरह जीवन में कुछ ही लोग उस प्रेम के वश में आ पाते हैं, और जो आते हैं, वे तर जाते हैं।

श्रीश्री रविशंकर जी

कलकत्ता
मार्च 1995

जीवन परिचय


संसार की भाषा है कलह, दिल की भाषा है प्रेम और आत्मा की भाषा है मौन। अब किस भाषा में बात करें ?
दिल की जो भाषा है उसमें शब्द कोई ज्यादा माने नहीं रखते। वैसे जब कारोबार करते हैं, दुकान चलाते हैं, उसमें तो दिल की भाषा नहीं होती, उसमें दिमाग का काम होता है। मगर जहाँ आत्मा का सम्बन्ध है, वहाँ तरंग काम कर रही होती हैं, कोई ज्यादा बोलने की जरूरत नहीं पड़ती। फिर भी तृप्त हो जाते हैं हम।

ज्ञान को पकड़ोगे-कितना ज्ञान चाहिए ? अच्छा ठीक है, दुनिया भर की, सब शास्त्रों का ज्ञान समझ लिया, फिर करोगे क्या ? ज्ञान का उपयोग तब तक है जब तक मैल न धुल जाये। जैसे साबुन-कपड़े में मैल लग गया, तुम साबुन लगाते हो, फिर साबुन को भी धो देते हो। नहीं ? इसी प्रकार ज्ञान के समान पवित्र करने वाला कुछ नहीं हैं, ज्ञान डिटरजेंट है। यदि ज्ञान को हम दान नहीं करते हैं, त्यागते नहीं हैं, तो ज्ञान ही अहंकार बन सकता है। अक्सर तुम पाओगे जो ज्ञानी लोग हैं उनमें अहंकार बहुत जबरदस्त होता है, भोलापन नहीं होता, सहजता नहीं होती। और सहजता नहीं होने से फिर अविनाशी-तत्त्व का अनुभव नहीं होता। चाहे तुम कुछ भी नहीं जानते हो, फिर भी तुम सहज होते हो तो अविनाशी-तत्त्व मिल जाता है। जितनी हमारी चेतना सहज, तरल होती है, उतने ही हम आत्मा के करीब होते हैं। आप यदि गीता को गौर से देखते हैं, तो लगेगा कि यह क्या बात है ? सब कुछ कहने के बाद आखिर में कृष्ण अर्जुन से कहते हैं, ‘‘अर्जुन, सब-कुछ छोड़ दो, सभी धर्मों को त्याग कर मेरी शरण में आ जाओ-मामेकं शरणं...’’ भई, तब अठारह अध्याय सुनने की क्या ज़रूरत थी यदि सब छोड़ना ही था ? सब गुणों का वर्णन किया, कर्म के बारे में, धर्म के बारे में, भक्ति के बारे में, सब कहने के बाद कहते हैं सब कुछ छोड़-छाड़ कर तुम आ जाओ। सब पहले ही कह देते-सारा झंझट ही खत्म नहीं ? ज्ञान को हम साबुन के जैसे समझते हैं, मन का मैल धुल जाता है, शुद्ध हो जाता है।

देखो, अब क्या हो रहा है ? सब लोग यहीं है कि कोई बाहर चल गये ? सब हैं ? मौजूद हैं ? आप बैठे तो हो मगर आपका मन तो निकल गया बाहर। 2-2 मिनट में आप हवा लेने के लिए निकल जाते हो। तीन मिनट से ज्यादा कोई सुनते ही नहीं...हर तीन मिनट में बाहर निकल जाते हैं...मन, शरीर तो यहाँ मौजदू है, मन कभी दूकान में, कभी घर पर निकल गया, दोस्त के पास, क्या करना है....है कि नहीं ? मान लो कि हम कुछ नहीं बोलें, ऐसे ही बैठे रहें आधे घंटे, पता है क्या होगा ? आप बैठ नहीं पाओगे, ऊपर देखोगे बत्ती को देखोगे, बत्ती को गिनने लग जाओगे कि कितने बल्ब हैं, पंखों को गिनोगे, कितने पंखें लगे हैं, ठीक है कि नहीं ?

मन भटकता है क्यों ? कभी सोचा है ? मन भटक क्यों रहा है ? क्या चाहिए है इसको ? चैन है नहीं क्यों अपने में ? सबकी एक ही माँग है-प्रेम। प्यार चाहिए, जो बाँध कर रखे मन को। और प्यार के बिना जितनी भी पूजा करो, मन्त्र करो, जप करो, कथा सुनो, कुछ लगेगा ही नहीं। उसका कुछ असर नहीं। हमें क्या चाहिए, इस पर हमारी दृष्टि पड़ जाये, वही काफी है, हमें इतना भी नहीं पता है हमें प्यार की आवश्यकता है, ऐसे प्यार की ज़रूरत है जो अविनाशी है, जो कभी घटता नहीं, पुरानी प्रीत चाहिए हमें...हमारा जो प्रेम है वह पुराना होता ही नहीं है, बचपन में ही मर जाता है। किसी से प्यार होता है, कुछ समय के लिए रहता है, फिर खत्म हो जाता है....और वह जो प्रेम जिसकी तलाश है, वह तो हमारा स्वभाव है, स्वरूप है....ज्ञान हमें वहाँ तक पहुँचाता है।

अब देखो, किसी ने आपको कुछ कह दिया...क्यों कहा, उसको खुद को नहीं पता है। आप में ऐसी तरंगें उठीं कि आपने उसके मुँह से गाली निकलवा दी। फिर आप उससे पूछ रहे हैं तुमने गाली क्यों दी। आप समझ रहे हैं ? इसका विज्ञान समझो न। ज़रा गहराई से देखो। आप में ऐसी तरंग है, ऐसा समय है, ये नहीं कहते तो दूसरे कोई कह देते, या तीसरा दे देता उस वक्त। मगर हम उस व्यक्ति को पूछते हैं तुमने ऐसा क्यों किया ? हम समझते हैं उसने जान-बूझकर किया, उसके बस की बात है। जैसे आपके साथ हुआ है कई बार, नहीं हुआ क्या ? ज़रा गौर करो, आप न चाहते हुए भी किसी को बुरा-भला कह दिये, किसी से झगड़ा मोल लिए हो ? हाँ या नहीं बोलिए ? किये हो ना ? मन ने तो नहीं चाहा, मन में ऐसा भाव नहीं था मगर निकल गया, ऐसा हो गया। अब कोई उसको भूले नहीं, उसको लेकर बैठ जाये, कैसा लगता है ? बुरा लगता है न ? घर-घर में बात होती है, लोग प्रतिज्ञा कर लेते हैं, मैं बिल्कुल चेहरा नहीं देखूँगा, बिल्कुल तुमसे जुदा रहूँगा...कितनी बेवकूफी है।

यह दुनिया इतनी विशाल है, इसमें तुम्हारा अस्तित्व क्या है ? कुछ भी नहीं है। यहाँ तो करोड़ों लोग आये, जीये, चल बसे। ऐसे ही तुम भी चले जाओगे। इस बीच तुम किसी को क्या साबित करने जा रहे हो ? तुम्हारी निपुणताएँ साबित करने जा रहे हो ? मैं भी कुछ हूँ ? क्या हो तुम ? करोड़ों वर्षों से दुनिया चली आ रही है, और चलती चलेगी-कभी हँसेंगे, रोयेंगे, कूदेंगे, खुशी मनायेंगे, मारेंगे, पीटेंगे...खत्म ही हो जायेंगे। इस बीच में ‘‘मैं कुछ हूँ, मैं करके दिखाऊँगा’’-किसको क्या दिखाने जा रहे हैं आप ? यह जो मन में भावना उठती है न, ‘‘करके दिखाऊँगा,’’ इससे बड़ी भूल और कुछ नहीं। यही मूल कारण है तनाव का। सहज हो जाओ, ढीले हो जाओ, प्रेम से सबसे मिलो, सब के साथ एकता महसूस करो। जैसे तुम मनुष्य हो, वे भी मनुष्य हैं, इस दृष्टि से देखो, तब तुम्हारे भीतर फैलाव होता है, तुम्हारे जीवन में विस्तार होता है। जीवन के प्रति तुम्हारी दृष्टि विकसित होती है।

देखो, यहाँ पर तुममें से कितने व्यक्ति माँ-बाप हैं ? तुम जानते हो तुम अपने बच्चों को कितना प्यार करते हो ? बहुत प्यार करते हो ना ? तुमने उनको जन्म दिया, तुम उन्हें प्यार करते हो। मैं कहता हूँ उससे दस गुणा अधिक वह शक्ति तुम्हें प्यार करती है, वह सृष्टि जिसने तुम्हें रचाया है...अब मान लीजिए आपके बच्चे बड़े हो जाते हैं, और आपकी तरफ मुँह मोड़कर देखते नहीं, आपको कैसा लगेगा ? बुरा तो लगेगा ना। बच्चे बड़े हो गये, उनकी नज़र और कहीं चली गई। जैसे आप के साथ हुआ, जब आप छोटे थे आपका पूरा प्यार, पूरा ध्यान अपने माता-पिता के साथ लगा हुआ था। जब आप बिल्कुल छोटे थे, हर वक्त, हर घड़ी अपने माता-पिता को याद करते थे। और जब आप बड़े हो गये, आपका वह प्यार वहाँ से हटकर अपने बच्चों में लग गया। अब जब आप माता-पिता बन गये हो तो आपका प्यार अपने बच्चों में ज्यादा है या अपने माता-पिता में ? उतना तो उन्हें अब आप नहीं याद करते जितना पहले करते थे। अब यही हाल है आपके बच्चों का भी। बच्चों का जितना ध्यान अभी आप की तरफ है, वह आप से हटकर अपने बच्चों में चला जायेगा।

मगर वह तत्त्व जिससे तुम पैदा हुए हो, तुम्हारी आत्मा पैदा हुई, तुम्हारा मन पैदा हुआ, जीव उत्पन्न हुआ, उसकी तरफ यदि हम देखते भी नहीं हैं इस दृष्टि से, प्यार से, भक्ति से-तो उसको कैसा लगता होगा ? कभी सोचा है ? जिस आत्मा से, जिस परमात्मा से हम पैदा हुए हैं, जिसमें हम जी रहे हैं, जिसमें हम मर कर समाप्त होंगे, उसकी तरफ यदि हमारी नज़र उठी ही नहीं, पूरी जिंदगी कभी धन्यवाद का भाव नहीं हुआ, कभी दो बूँद आँसू नहीं गिरे उसी तरफ तो जीवन फिर निरर्थक है। ऐसा ही मानो तुम्हारे बच्चों ने कभी तुझको धन्यवाद नहीं दिया, कभी तुम्हारे प्रति प्यार और कृतज्ञता नहीं प्रकट किया।
कुछ है जिसे तुम जानते नहीं, समझते नहीं-किन्तु वही तुम्हारे पूरे जीवन का आधार है, उसके प्रति कृतज्ञता, यही भक्ति है। इतना कृतज्ञ हो जाओ जीवन में। कृतज्ञ होने के लिए भगवान को जानने की ज़रूरत नहीं। भगवान को जान नहीं सकते हो। दुनिया को जान सकते हो, भगवान को मान सकते हो, महसूस कर सकते हो। जैसे नींद को जान नहीं सकते। नींद को जान सकते हो क्या तुम ? मगर सो सकते हो। प्यार नहीं जान सकते मगर प्यार कर सकते हो। इसी तरह भगवान को कोई जान नहीं सकता है मगर भगवान में हो सकता है-भगवान में डूब सकते हो, भगवान हो सकते हो। खुद भगवान हो जाओ। इसी को कहा है ब्रह्म-विद्या। किन्तु हम पूजा-पाठ कर लेते हैं, इधर-उधर जाकर मन्दिर में शिवजी के मुँह पर, पार्वतीजी के मुँह पर पेड़ा लपेटकर आ जाते हैं और सोच लेते हैं अपनी पूजा कर ली। जो भी तुम पूजा करते हो न, या तो तुम भय से करते हो, या लाभ से। अच्छा, आपको कैसा लगेगा यदि आप ही के बच्चे आपके पास लोभ से या भय से आते हैं ? आपको कैसा लगेगा ? मान लीजिए आपके बच्चे आपके पास आते हैं डरकर या लोभ से -‘‘क्या मिलेगा मुझे आज ? इनसे कितना छीनूँ ?’’ इस दृष्टि से आते हों, तो आपको कैसा लगेगा ? मगर आप स्वयं यही करते हो। भगवान के पास जाते हो लोभ से या भय से। ‘‘मेरा यह काम कर दो, वह कर दो, धंधा ठीक हो जाये।’’ अपनापन महसूस करते हुए कभी किसी मन्दिर में घुसे ही नहीं। फिर हम कहते हैं कि भगवान तो भाग गया। वे तो आप के दिल में छिप गये हैं-क्योंकि वहाँ तो कोई पहुँचता ही नहीं, दिल में उन्हें कोई ढूँढ़ता ही नहीं...।
हम पूजा करते हैं, किसलिए करतें हैं ? ‘‘आरती’’ माने क्या ? आचमन का प्रतीक-जिसमें इतनी तल्लीनता आ जाये, पूर्ण सुख जिसमें मिल जाये, सम्पूर्ण सुख, इसलिए आरती के समय ढोल-घन्टा बजाते हैं, इतना शोर-गुल करते हैं ताकि आपका मन इधर-उधर न जाये, कुछ विचार न आये मन में। वैसे तो कोई भी मूर्ति के सामने खड़े हो जाओ तो कोई न कोई विचार आता है न दिमाग में ? तो जब इतना जोर से शोर-गुल हो रहा हो, विचार कहाँ आयेंगे ? शोर करके तुम्हारे मन को वर्तमान में लाने का यह तरीका ऋषियों ने बहुत अच्छी खोज-बीन करके बनाया है। पाँचों इन्द्रियाँ-हमारी सभी इन्द्रियाँ मन्दिर में केन्द्रित हो जाती हैं-खुशबूदार अगरबत्ती जलाते हैं व सुगन्धित फूल चढ़ाते हैं, मूर्ति को अत्यन्त मनमोहक रूप से सजाते हैं सुन्दर वस्त्रों और जेवर से, मुँह में प्रसाद देते हैं और आरती के समय ढोल इत्यादि के सहित इतना शोर-गुल करते हैं ताकि तुम्हारे मन को केन्द्रित कर लें, मोहित कर लें-कोई और विचार आ ही नहीं सके और तुम बिल्कुल वर्तमान क्षण में रहो।

वर्तमान में आ जाओ, तभी भक्ति हो सकती है, तभी मुक्ति मिल सकती है, तभी शक्ति मिलेगी जीवन में, अन्यथा नहीं।


अहमदाबाद
मार्च 1994


साधना की ओर



समुद्र के किनारे कुछ लोग शाम को ऐसे ही टहलने के लिए जाते हैं। वे सिर्फ टहलने भर से खुश हैं। ताज़ी हवा मिल जाती है। कुछ लोग अपने जूते वगैरह उतारकर ठंडे पानी में पैर रखते हैं और उसी से खुश हो जाते हैं। किन्तु कुछ लोग इससे भी तृप्त नहीं होते और पानी में तैरने के लिए जाते हैं, नहाने के लिए जाते हैं। कुछ लोग समुद्र की गहराई में डुबकी लगाकर उसमें से कुछ रत्न, मूँगा, मोती निकालने जाते हैं, तो कुछ लोग मछली पकड़ने के लिए जाते हैं। और कुछ लोग उसके पानी से नमक बनाकर खुश होते हैं, तो कुछ समुद्र से तेल निकालते हैं। समुद्र एक ही है, किन्तु अलग-अलग व्यक्ति अपनी-अपनी ज़रूरत के हिसाब से जो कुछ उनको चाहिए, उसमें से निकाल लेते हैं। ऐसा ही है न ?

सागर किसी को मजबूत नहीं करता। वह किसी से यह नहीं कहता, ‘‘अरे भई, तुम सिर्फ नमक क्यों निकाल रहे हो, मछली ले लो।’’ और जो मछली पकड़ने के लिए जाते हैं, उनसे यह नहीं कहता, ‘‘भई, यहाँ तेल पड़ा है, तेल ले जाओ’’। और जो तेल के लिए सागर के पास जाते हैं, उनसे नहीं कहता, ‘‘अरे भई, और गहराई में डुबकी लगाओ, वहाँ पर मोती है, मूँगा है, वो सब निकालो।’’ जिसको जो चाहिए, वह उसमें से स्वयं ले लेता है। ज्ञान का भी ऐसा ही सागर है इसमें हम जितनी गहराई में उतरते हैं, उतने ही हम सुखी होते हैं। तो अब आप पूछो, आपको क्या चाहिए ? आप प्रश्न पूछो और निकाल लो जवाब। जवाब आपको ही निकालना पड़ेगा।


प्रश्न : सफल जीव किसे कहते हैं ?


श्रीश्री : हम हँस सकें, दिल खोलकर बात कर सकें, प्रेम में रह सकें, हममें खुशी की चमक हो। मुस्कुराहट ऊपर-ऊपर की न हो, भीतर से आए। ऊपर-ऊपर से तो हम अक्सर मुस्कुराते हैं, कोई शत्रु भी आ जाए तो भी मुस्कुराकर पूछते हैं, ‘‘हाँ भई, कैसे हो ?’’ किन्तु भीतर से बुरा-भला कहते हैं। तो यह तो ऊपर से नाटक करना हो गया। हममें एक आंतरिक मस्ती होनी चाहिए। हरदम मस्त रहना चाहिए। वही सफल जीवन है जिसमें हमारी हँसी ऐसी मजबूत हो कि कोई उसको हम से छीन न पाए। अक्सर छोटी-मोटी बातों से हमारी हँसी उड़ जाती हैं। ऐसा होता है ना ? मान लीजिए आप बहुत खुश हैं और टेलीफोन पर आप को किसी ने कुछ कठोर शब्द कह दिया। बस, झट से आप का माथा गर्म हो जाता है। यह आप सब का अनुभव है कि नहीं ?
जीवन में हम सफलता को तभी नाप सकते हैं जब हमारी हँसी हर अवस्था में एक सी बनी रहे। देखिए, आप जीवन-भर खुशी की तैयारी में लगे रहते हैं। मान लो आप अस्सी साल के हैं, तो चालीस साल तो आपने सो कर निकाल दिए, बीस-पच्चीस साल काम करने में निकाल दिए, बाकी के पन्द्रह-बीस साल नहाने-धोने में खाने-पीने में और यात्रा में निकाल दिए। हाँ, बचपन के दो-तीन साल मस्ती में गुज़ारे। या साल में दो-चार दिन, जब कोई त्यौहार आया, या कुछ और उत्सव हुआ, तो हँसी में समय बिताया। इसके सिवाय बाकी सब समय तो जीने की तैयारी में ही निकल गया। ऐसा ही है ना ? हमने कभी शाँत बैठकर यह नहीं सोचा, ‘‘मैं कौन हूँ, कहाँ से आया हूँ और किस लिए आया हूँ ?’’ कभी आपको यह याद आया कि आप पृथ्वी पर हैं ? शायद इतना तो ध्यान है कि आप अहमदाबाद में हैं या गुजरात में हैं, या भारत में हैं। किन्तु-‘‘मैं पृथ्वी पर हूँ, पृथ्वी पर भारत है, उसमें गुजरात है, उसमें अहमदाबाद है, इस गली में, इस घर में और इस घर में भी इस शरीर में मैं हूँ।’’ यह बहुत महत्त्वपूर्ण खोज है, और यह अनुभव की बात है।


प्रश्न : साधना क्या है ?


श्रीश्री : साधना माने वह धन जो आपके साथ जाएगा। बाकी धन तो आप कितना भी इकट्ठा करें, आप लेकर नहीं जा सकते, छोड़कर ही जाना पड़ता है। जिससे मन में प्रसन्नता, प्रेम और शांति उदय हो, उसको साधना कहते हैं। जिससे मन हल्का हो जाए, तन हल्का हो जाए और आप प्रसन्नचित और खुश हो जाएँ, वही सबसे बड़ी पूजा है। देखिए, सृष्टि में कितने तरह के फूल हैं, कितने तरह के फल और सब्जियाँ, कितने तरह के पशु-पक्षी हैं, तो यह सब सृष्टि में किसलिए रचा गया है ? जिससे किसी तरह से रचयिता आपको रिझाए, आपको मनाए, आपको खुश करे। किन्तु जब फिर भी आप खुश नहीं होते, तो भगवान भी थक जाता है, और कहता है, ‘‘अरे इनके लिए तो एक ही फल बनाकर छोड़ सकता था।’’ फिर, बस, जीवन भर सेव ही खाते रहो। किन्तु विधाता ने केले भी जाने कितने तरह के बनाए हैं। तरह-तरह की रंग-बिरंगी दुनिया बनाई है। अपना सिर तो उठा कर देखो, आसमान में भी रोज़ एक नया चित्र मिलता है। हर सुबह जब भोर होती है तो एक नएपन को साथ लेकर होती है। तो इतनी बढ़िया सृष्टि रचाई उसने जिससे तुम्हारा मन इसमें लगे और तुम किसी प्रकार से खुश रहो।

और कितने तरह के नाते-रिश्ते, कितने तरह के नाटक, अच्छे-बुरे, सब तरह के लोग, जिससे जीवन में कुछ रोमाँच हो, रस हो...। आपको कोई कहानी कब अच्छी लगती है ? जब उसमें कुछ उतार-चढ़ाव हो, रोमांच हो। यदि कहानी सिर्फ एक अच्छे आदमी की हो-एक आदमी पैदा हुआ, वह खाता है, पीता है सो जाता है फिर खाता है पीता है फिर काम करता है और सो जाता है। प्रतिदिन ऐसा ही चले, तो वह कोई कहानी हुई क्या ? उसमें कोई दुश्मन आये, कोई मित्र आये, किसी ने किसी को रुलाया, किसी को हँसाया, तो आप कहते हैं, ‘‘वाह ! वाह ! क्या बढ़िया कहानी है।’’ इसी तरह से आप, सब जो यहाँ बैठे हैं, वह भी सब धारावाहिक है। यह धारावाहिक न जाने कितने जन्मों से चला आ रहा है और यह सब इसलिए है कि आप खुश हो जाएँ। आपको रिझाने के लिए ही सारी सृष्टि बनी है। फिर भी आप खुश नहीं होते, संतुष्ट नहीं होते, तब भगवान हाथ जोड़कर कहता है, ‘‘जाओ भई, जैसा मन हो, करो।’’




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